Tuesday, May 31, 2016

कल, आज और कल!

जीता हूँ अपने कल में,
कल जो गुजर गया, कल जो आएगा,
संभालते संभालते उसे जो चला गया,
पकड़ते पकड़ते उसे जो आएगा,
ना जाने मेरा आज, कहाँ खो गया?

जो गुजर गया कल, शायद वही तो आज था,
ना जाने ये कैसे बीत गया?
आनेवाला कल शायद यही तो आज है,
फिर भी क्यों पीछे छूट गया?

बचपन जैसा कल, सच्चा सा,
माँ जैसा कल, मीठा सा,
पिता जैसा कल, ढृढ़ सा,
दोस्तों जैसा कल, शैतान सा,
भाई-बहन जैसा कल, अपना सा,
कल जो गुजर गया, शायद वही तो आज है!

आनेवाला कल दूर क्षितिज पे बुला रहा,
अपनी ताप में चमकता, हसीन सा,
सौंदर्य अदभुत, आकर्षित करता,
अपनी और खींचता हुआ!

पहुंचा क्षितिज पे, तो पाया ये,
अकेला था......
जो पीछे छोड़ आया वही तो मेरा क्षितिज था,
सच्चा, मीठा, ढृढ़, शैतान, अपना सा!

ये कल भी था,
आज भी है,
और कल भी रहेगा!
फ़रक सिर्फ इतना है,
गुजर गया तो कल है,
आएगा तो कल है,
कल जो आज है, आजकल है,
आज ही से कल है, आज से ही कल है!

Tuesday, May 17, 2016

रिमझिम बारिश की बूँदें!

उन्मुक्त गगन से, बादलों के आँचल में,
हवा के झूँके का रथ बनाती,
मिट्टी में मिल, सोंधी खुशबू सी महक जाती,
रिमझिम बारिश की बूँदें!

हर्षोल्लास कि बेला बन,
सबके जीवन को छू जाती,
गीत गाते पंछी, नाचता इन्सान,
रिमझिम बारिश की बूँदों में!

बूढ़े किसान का चूल्हा जलाती,
दो जून की रोटी बनाती, जग तृष्णा मिटाती,
जीवन दायनी ये,
रिमझिम बारिश की बूँदें!

जाने कितने दिलो पर है दस्तक देती,
रूठते आशिक़ और मनाती मोहब्बत,
आँखों ही आँखों में बातें होती,
हाथों में हाथ डाल सैर करते,
थोड़ा थोड़ा भीगे से, मन हि मन मुस्कुराये,
रिमझिम बारिश की बूँदों में!

यह संध्याकाळ का अदभुत दृश्य है,
डूबता हुआ सूरज, मंद मंद हवा,
क्षितिज पे चमका ये कैसा इंद्रधनुष है,
रिमझिम बारिश की बूँदों में!

Thursday, May 12, 2016

ट्रैफिक सिग्नल !

चौराहे, तिराहे, दोराहे के सृजन पे आप मुझको पाते हैं,
सुन्दर स्वस्थ शरीर मेरा, बहुत सारी आँखें हैं!
हाँ गूंगा हूँ जरूर मैं, बहरा नहीं!
प्रतिदिन, प्रतिजन के जीवन को मैंने छुआ है!

हूँ जब हरा, होते खुश आप देख मुझे,
लाल हूँ जब, अपना अपमान सहता हूँ!
सतरंगी हुआ तो, अजब सी हड़बड़ देखी है!
हड़बड़ में कुछ लोग लड़ते देखे हैं!

इसी भरी भीड़ में, कुछ चेहरे पहचानता हूँ,
नाम से नहीं, आचरण से!
हॉर्न से हाथ हटता नहीं किसी का,
कोई फ़ोन और मेकअप में व्यस्त है!
कोई आगे भड़ने कि है फ़िराक में,
तो कहीं, हाथ गाडी ढोता वो भूड़ा है चुपचाप खड़ा!
जहाँ एम्बुलेंस को फंसते देखा मैंने,
मिनिस्टर की गाडी निकल जाती है!
कुछ दुआएं बेचते बच्चे देखे,
तो कहीं, सपने खरीदते परिवार!

मानसून  कि पहली बारिश में भीग, दो दिन बीमार जो मैं हुआ,
दो किलोमीटर लम्बे जाम में, आपके अपमान का पात्र बना!

आज सुबह से क्यों शोर सुनाई नहीं देता मुझे?
कल रात लम्बी गाडी ने जो ठोका उसका असर है!
अछा ही है जो बहरा भी हो गया हूँ,
ट्रैफिक सिग्नल पे शोर बहुत है!
फिर भी बखूबी करता हूँ अपना मैं काम,
ना जाने फिर भी क्यों मैं बदनाम?

Tuesday, May 10, 2016

शब्दों का पार्क!

गुज़रता हूँ रोज़ उस शब्दों के पार्क से, जहाँ कभी रुक सैर किया करते थे!
ताज़ी हवा से अपने को हल्का कर, गगन में उड़ा करते थे!
आजकल बाहर से ही, आगे बढ़ जाता हूँ मैं!
कुछ पुराने लोगो को अब भी देखा है वहां, खुश हैं अपनी मौज में रहते है!

कुछ देर रुक वहां मैं, खेलना चाहता हूँ!
झूले पे बैठ, आसमान चूमना चाहता हूँ!
अपनेआप को भूलना, पहचानना चाहता हूँ!
फिर से बच्चा बन, शब्दों के उन् झूलों पे, अट्टाहस लगाना चाहता हूँ!

आज अंदर गया पार्क में तो जाना ये,

झूलों की लम्बी उड़ान से डर लगता है अब मुझे,
पार्क के बाहर खड़े लोग नज़र आते है अब मुझे!
क्यों रोक देते है वो, मुझे अपनी मस्ती और मज़े से?
कुछ झूलों का रंग उतर सा गया है शायद, 
या जंग लग गया है मेरे ही शरीर को?