शब्दों का पार्क!
गुज़रता हूँ रोज़ उस शब्दों के पार्क से, जहाँ कभी रुक सैर किया करते थे!
ताज़ी हवा से अपने को हल्का कर, गगन में उड़ा करते थे!
आजकल बाहर से ही, आगे बढ़ जाता हूँ मैं!
कुछ पुराने लोगो को अब भी देखा है वहां, खुश हैं अपनी मौज में रहते है!
कुछ देर रुक वहां मैं, खेलना चाहता हूँ!
झूले पे बैठ, आसमान चूमना चाहता हूँ!
अपनेआप को भूलना, पहचानना चाहता हूँ!
फिर से बच्चा बन, शब्दों के उन् झूलों पे, अट्टाहस लगाना चाहता हूँ!
आज अंदर गया पार्क में तो जाना ये,
झूलों की लम्बी उड़ान से डर लगता है अब मुझे,
पार्क के बाहर खड़े लोग नज़र आते है अब मुझे!
क्यों रोक देते है वो, मुझे अपनी मस्ती और मज़े से?
कुछ झूलों का रंग उतर सा गया है शायद,
या जंग लग गया है मेरे ही शरीर को?
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