कागज़, कलम, दवात, और.....
धूल के आँचल से ढकी आज फिर वो किताब उठा ली, सूखी पड़ी वो दवात, टूटी कलम उठा ली,
फूंक मारी हौले से किताब पे,
घूँघट उठा, धूल छटी,
घूँघट उठा, धूल छटी;
और.…
और बेनकाब हुए हम.।
कहीं जुलम हुआ उन् यादों पे,
मौड़ टूटे, मंज़र रूठे,
रूठे वो पल जो दफ़न थे,
इस किताब के पन्नो में....
श्याही अभी छुटि न थी,
शब्द अब भी अधूरे न थे,
बस बिखरे पड़े थे वो ख्वाब,
जो पूरे ना हो सके....
क्यों ना आज फिर एक ख्वाब देखें,
दवात को भिगो इस बारिश क़ि बूंदों में,
कलम को चला चला तेज़ करें,
कोरे पड़े इन पन्नो पे, कुछ लिखें, कुछ लिखें !!
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