Monday, July 27, 2015

एयरपोर्ट वाले वो बाबा!

क्यों है तू विस्मित ऐ राही,
कहाँ है तू जा रहा?
इस चकाचौंद को देख,
क्यों है तू घबरा रहा?

बाल सफ़ेद, आँखें पथराई,
चेहरा झुर्रियों से भरा,
दास्ताँ बीतें कल कि तेरे बता रहा,
तू फिर भी क्यों ऐ राही घबरा रहा?

तेरी घिसी पिटी, मैली सी हवाई चप्पल,
अलग सी क्यों है, इस चमकते फर्श पे?
अलग सा क्यों है तू,
इस शहर कि भीड़ में?

जो पूछा मैंने,
बाबा कहाँ जाओगे, क्या है तेरी मंज़िल?

सफर पे हूँ बेटा,
मंज़िलें नहीं हुआ करती, जीवनसंध्या में!
आठ घंटे एयरपोर्ट पे और है अभी बिताने,
यहाँ के अलग है तौर तरीके,
अलग है ठौर ठिकाने,
पचास का पानी, डेढ़ सौ की कॉफ़ी,
ना बीड़ी, ना पान,
अलग सा है यहाँ का अंदाज़-इ-ब्यान!

ठहरी सी आवाज़ में फिर बोले,

यूँ ही बीत जाएंगे ये आठ घंटे, सोचता हूँ,
शहर ने क्या है खोया, और क्या पाया,
गगनचुंबी इमारतें हैं, शीतल छावं का एक छोर नहीं,
फ़ास्ट फ़ूड है यहां, मोटापा भी है,
बाजरे गुड संग वो रोटी नहीं,
वो सौंधी सी खुशबु, वो अपनापन नहीं,
मटके नहीं वो पानी के, यहाँ पानी बिकता है,
शहरों कि इन् महफ़िलो में,
इंसान बिका करते हैं!

और मैं बाबा को छोड़ पीछे,
आगे बढ़ चला,
बेचने या बिकने,
पता नहीं!!

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