Sunday, February 28, 2016

जीवन चक्र!

भागती, दौड़ती, ख़्वाबों का पीछा करती
भूखी, प्यासी, व्याकुल, थकी-हारी  आगे बढ़ती
मायाजाल में फंसी, उलझनों से घिरी
रूठी सी
एक ढर्रे पे चलती ज़िन्दगी!

आज बैठकर समझाया इसे
नए ख्वाबों से सजाया, श्रृंगार किया हे!

कुछ देर सुस्ता कर, कमर फिर से कस ली है
पोटली में बाँध अपने ढृढ़निश्चेय को
मैं आगे बढ़ चला
ज़िन्दगी तुझे एक बार, फिर से चुनौती दी है!